“बंदर कैसे नाचेगा, ये बंदर कभी तय नहीं करता है”

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लगातार चौथे हफ्ते रिपब्लिक भारत नंबर 1 पर है और हर हफ्ते इसने अपनी बढ़त और मजबूत की है। इस हफ्ते ये आजतक से 6.4 अंक आगे है, यानी इतना जितना निचले पायदान के तीन-चार चैनलों को कुल अंक भी नहीं और जितना निचले चैनलों में से किसी को आ जाए तो जश्न शुरू हो जाए। इस हफ्ते की एक और खास बात ये कि बेहद कड़े मुकाबले में टीवी 9 भारतवर्ष इंडिया टीवी को तीसरे नंबर से चौथे पर खिसकाते हुए नंबर 3 पर आ गया है। इस बार भी यही शीर्ष चार चैनल दहाई अंकों की टीआरपी ला पाए हैं, टॉप 5 का नंबर 5 इस हफ्ते भी टीवी 18 इंडिया ही है। कई हफ्तों से निचले पायदानों पर लुढ़के ज़ी न्यूज़ और एबीपी न्यूज़ जैसे चैनलों के लिए अब टॉप 5 में जगह बनती दिख ही नहीं रही।

टीआरपी को लेकर, न्यूज़ चैनलों की कवरेज़ को लेकर बहुत कुछ लिखा जा रहा है, बोला जा रहा है, आलोचना भी हो रही है, लेकिन हमें प्रैक्टिकल होकर इसे देखना चाहिए। कोई भी कंपनी कोई प्रॉडक्ट बनाती है या विज्ञापन बनाती है तो उसका टीजी यानी टारगेट ग्रुप तय करती है, उसके मुताबिक कंटेंट और प्रेज़ेंटेशन तय होता है। मसलन अगर ऑल्टो और वैगन आर का टीजी नेताओं और उद्योगपतियों को बनाकर कंपनी सोचे तो कैंपेन उसी तरह फ्लॉप होगा, जैसा कम आय वर्ग वालों को टीजी बनाकर बीएमडब्ल्यू, ऑडी और फॉर्च्यूनर का विज्ञापन बनाने का अंजाम होना है। न्यूज़ चैनलों की कवरेज़ भारतीय टीवी दर्शकों का मानसिक स्तर क्या है, उसको ध्यान में रखते हुए तय किया जाता है। किस वक्त के कार्यक्रम में किस तरह के दर्शक होते हैं, इसका ध्यान रखते हुए संपादकीय टीम कंटेंट और पैकेजिंग की रूपरेखा तय करती है। ख़बरें बेचनी होती हैं और खरीदार किस तरह की ख़बरों में दिलचस्पी रखता है, ये म्यूचुअल अंडरस्टैंडिंग टीआरपी में सामने आती है।

आपने मदारी का खेल देखा होगा। बंदर कैसे नाचेगा, ये बंदर कभी तय नहीं करता है, बल्कि मदारी को ही तय करना है। बंदर अगर भूखा है तो भी मदारी ही तय करता है कि उसे कब खिलाना है, क्या खिलाना है, कितना खिलाना है? ये स्वाभाविक है, इसलिए इसे लेकर माथापच्ची के मायने नहीं हैं। अब ये कौन तय करेगा कि बंगला ढ़ह गया, बर्बाद हो गया, ये ख़बर दिखानी ज्यादा महत्वपूर्ण है या अर्थव्यवस्था ढ़ह गई, बर्बाद हो गई, ये ख़बर दिखानी चाहिए या फिर दोनों ही ख़बरें दिखनी और दिखानी चाहिए? दर्शक अपना जवाब दे रहे हैं और लगातार दे रहे हैं कि उन्हें न्यूज़ चैनलों से lक्या चाहिए? उन्हें देशहित के मसलों पर ज्ञान नहीं चाहिए, उन्हें दलहित से जुड़े मसलों पर मसाला चाहिए।जिन्हें देशहित से जुड़े विषयों में दिलचस्पी है, वो यूट्यूब पर चल रहे पचासों चैनलों पर जा रहे हैं, वहां भी हजारों-लाखों हिट्स दे रहे हैं।

तो टीवी न्यूज़ दर्शकों का ये जवाब अटपटा भी नहीं है क्योंकि न्यूज़ देखने के लिए न्यूज़ चैनलों पर क्यों आना, ट्विटर है, वेबसाइट्स हैं। दूसरी ओर चैनलों पर एंटरटेनिंग एंकर्स, एनर्जिक रिपोर्टर्स, अजीबो-गरीब मनोरंजन प्रणेता नेता, बॉलीवुडिया ग्लैमर, लाइव, एक्शन, कैमरा सब है। इसलिए मेरा आग्रह है कि चैनलों और दर्शकों के बीच का रोड़ा न बनें, मनोरंजन में कोई कमी न रह जाए जब इसका ख्याल चैनल रख रहे हैं और मनोरंजन ही ख़बर है, इस कांसेप्ट पर दर्शकों की मुहर लग रही है तो फिर दाल-भात में मूसलचंदों को खुद अपनी जगह पकड़ लेनी चाहिए। देश हो या चैनल, आदर्शवाद से, सिद्धांतवाद से नहीं चलते, यथार्थवाद से चलते हैं और यथार्थ यही है कि चैनल दर्शकों के मानसिक स्तर को मैच कर रहे हैं। एक बार फिर रिपब्लिक भारत के सभी मित्रों को दर्शकों की नब्ज को बाकी चैनलों की तुलना में सबसे ज्यादा समझने और उसके मुताबिक कवरेज़ के लिए बधाई।

वरिष्ठ पत्रकार परमेन्द्र मोहन जी के फेसबुक वाल से

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