तभी इस साल बनारस से आम नहीं आया।
साल याद नहीं है। गिनता हूं तो कभी 10 तो कभी 12 हो जाता है। एक दिन प्राइम टाइम के बाद एक नंबर बार बार बज रहा था। उठा लिया। दूसरी तरफ पान से भरे मुंह से कोई शख़्स बात करने लगा। अंदाज़ ऐसा था कि मैं भी सुनने लगा। उनकी बनारसी पर फिदा हो ही रहा था कि उन्होंने कहा कि वैसे मैं सरदार हूं। ठेठ पंजाबी। मेरी कमियां निकालने के बाद वे किस्से सुनाने लगे। कहने लगे कि मुझसे बात करते रहिए, आपका तनाव दूर होता रहेगा। जीवन में एक बनारसी दोस्त होना चाहिए। मैंने कभी जानने का प्रयास ही नहीं किया कि कौन हैं। कैसे हैं। उनकी आवाज़ में ख़ास किस्म की आत्मीयता थी जिसकी आहट ने मुझसे पहचान करा दी। सरदार जी के नाम से उनका नंबर सेव कर लिया। उन्हें मेरे कपड़ों से बहुत शिकायत थी। बनारस के किसी ख़ास दुकानदार से बढ़िया फैब्रिक और रंग के सूट सिलवाने की बात करने लगे। बात की बात का कौन हिसाब रखता है। हंस कर टाल दिया। पर चाहते ज़रूर थे। धीरे धीरे बातचीत एक रिश्ते में बदल गई। होली और उसके बाद गर्मी आते ही सरदार जी के यहां से कोई आम और ठंडई लेकर आने लगा। हर बार कहता कि अब नहीं लेकिन कुछ साल के बाद कहना छोड़ दिया। उनका भेजा आम इतना ज़्यादा होता था कि दोस्तों में भी छक कर बाँटता था। कई साल तक आम आता रहा। किसी साल ऐसा नहीं हुआ कि यह सिलसिला टूटा हो। उनका दावा था कि मेरी हर रिपोर्ट देखी है। याद रखते थे। मुझे ही याद कहां रहती है। घर के लोगों का हाल लेते वक्त यही कहते कि बहू कैसी है, पोतियां कैसी हैं। मुझे उनका स्नेह ओढ़ना अच्छा लगता था। ओढ़ने लगा। कभी तनाव के दिनों में फोन कर लेता था। लंबी बातचीत। उनके जीवन की बातें जानने लगा। उनकी पहचान की बातों का ध्यान ही नहीं रहा कि वे कौन हैं। इसलिए आपसे उनका नाम साझा नहीं कर रहा हूं। पिछले साल तालाबंदी हुई तो यही लगा कि इस साल सरदार जी नहीं भेज पाएंगे। जहाज़ उड़ रहा है न रेल चल रही है। अचानक एक दिन गेट से आवाज़ आई कि बनारस से कोई आम लेकर आया है। उस दिन कुछ कौंध सा गया। यकीन ही नहीं हुआ कि कोई ऐसे वक्त में भी नागा नहीं करेगा। रात को फोन किया और पहला सवाल यही कि पता नहीं दसवां साल है या चौदहवां, इतने साल से आपसे बातें कर रहा हूं। आप हर साल आम, गुझिया और ठंडई भेजते हैं। कभी यह ख्याल क्यों नहीं आया कि आपसे मिलूं। आप कौन हैं? मैंने कितना कुछ खो दिया। आप मुझसे इतना प्यार करते हैं और मैंने कभी जानना ही नहीं चाहा कि आप कौन हैं। मैं आपसे मिलना चाहता हूं। आपको देखना चाहता हूं। मैंने आपका चेहरा तक नहीं देखा है। सिर्फ आवाज़ से पहचानता हूं। उन्होंने इसका कुछ जवाब नहीं दिया। उस दिन हंसते रहे कि मिलेंगे मिलेंगे। आप बनारस आइये। घूम फिर कर वही पुराना राग कि बनारस में मेरा घर है। होटल से भी अच्छा है।आपको कोई तंग नहीं करेगा। मनाली चले जाइये। वहां एक छोटी सी जगह है। एकांत मिलेगा। मैं कहता रहा कि आप जानते हैं कि जब इतने सालों में मनाली नहीं गया और बनारस नहीं गया तो इसका कोई मतलब नहीं है। लेकिन मैं आपको देखना चाहता हूं। मिलना चाहता हूँ। उस रोज़ उनसे बात करते हुए भरभरा गया था। याद नहीं, किस वादे पर बात ख़त्म हुई थी। तीन चार दिन पहले बनारस से ही मेरी एक दोस्त ने व्हाट्स एप में मैसेज भेजा कि आपको आम भेजूं। उन्होंने आम भेज दिया है क्या? वो
जानती हैं कि बनारस से कोई आम भेजता है। इसलिए उन्हें भेजने का कभी मौका नहीं मिला क्योंकि वह हक़ सरदार के पास था। इसे पढ़ने वाले कृपया मुझे कभी कुछ न भेजें। मैं बस उस पितातुल्य शख़्स को याद कर रहा हूं जिसकी आवाज़ मेरे ख़ून से होकर गुज़रती थी। व्हाट्स एप के उस सवाल से कुछ धड़क सा गया। अचानक ध्यान आया कि सरदार जी का इतने दिनों से कोई मैसेज नहीं। ऐसा तो कभी नहीं हुआ। मैंने मैसेज कर दिया कि कैसे हैं। जब दो दिनों तक जवाब नहीं आया तब सिहरन सी होने लगी। आज कल की सी आशंकाएं घेरने लगीं। बस एक अफसोस ज़हन पर दस्तक देने लगा। ठीक होंगे तो इस बार पक्का मिलूंगा और कहूंगा कि मैं आपको बहुत प्यार करता हूं। आपका भेजा आम ऐसे खाता हूं जैसे मेरे पिता मेरे लिए लेकर आए हों। कल शाम को अजय सिंह को फोन किया। अजय को बताया कि इस नाम के एक शख्स हैं लेकिन और कुछ पता नहीं है। एक फोन नंबर है जो बंद है। कहां रहते हैं यह भी नहीं पता। एक बार किसी बातचीत में अपने भतीजे का नाम लिया था जो राजनीति में हैं। मैंने नाम भी ग़लत बताया। मैंने अजय से कहा कि पिछले कई साल में ऐसा हुआ नहीं कि बनारस से आम न आया हो। बस मैं जानना चाहता हूं कि वो ठीक हैं कि नहीं। अजय ने बनारस में कुछ लोगों को फोन किया और सही नाम वाले भतीजे तक पहुंच गए। भतीजे का जवाब आ गया है। सरदार जी नहीं हैं। 30 अप्रैल की रात दिल का दौरा पड़ गया था। तभी इस साल बनारस से आम नहीं आया।
रवीश कुमार के फेसबुक वॉल से
Ayush Kumar Jaiswal,
Founder & Editor
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