शवों के बीच रहने वाले ‘डोम राजा’ और उस शहर की कहानी, जहां मृत्यु उत्सव बन जाता है

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हेमंत शर्मा

जिन्दा रहते आपको देश भर में कई राजा मिल सकते हैं. पर मरने के बाद का राजा आपको बनारस में ही मिलेगा. एक ऐसा राजा जिसका जीवन मुर्दे से शुरू हो मुर्दे पर ही ख़त्म होता है. आज की कथा है बनारस के ‘डोम राजा’ की. 1966 में जब देश से रजवाड़े ख़त्म हुए. रियासतें इतिहास बनी. राजा लोग पैदल हुए, तब भी इस डोम राजा का जलवा अपनी पूरी सज धज के साथ क़ायम रहा. काशी के डोम राजा मुर्दों का अंतिम संस्कार करते/ करवाते हैं. उनकी अखण्ड अग्नि से ही मुक्ति का मार्ग खुलता है. इसलिए काशी के महाश्मशान में सिर्फ़ ‘डोम’ नाम सत्य है. इन्हें आप धरती का ‘यमराज’ भी कह सकते हैं.

डोम राजा कैलाश चौधरी अंतिम घोषित राजा थे. उसके बाद तो इनका भी राजपाट देश की माली हालात जैसा रहा. अब कैलाश चौधरी की तीसरी पीढ़ी और कालू डोम की दसवीं पीढ़ी गद्दी पर है. पर अपना अपनापा तो कैलाश चौधरी से था. कई बार श्मशान, डोम परम्परा और मृत्यु की चेतना पर लिखने के लिए मैं उनसे मिला था. प्रेमी आदमी थे सुबह से ही सुरा में आकण्ठमग्न रहते. ज़माने से बेपरवाह. मृत्यु की चेतना से रोज दो चार होते-होते वे लोक-परलोक की चिन्ता से परे हो गए थे. लम्बे, चौड़े, काले, साक्षात यमराज के प्रतिनिधि लगते थे. कम बोलते थे. पहलवानी करते थे. जोड़ी नाल फेरते थे. घर में ही अखाड़ा था.

मानमंदिर घाट पर उनकी शेर वाली कोठी थी. चांदी की बॉडी वाला उनकी इक्का था, जिसे वे टमटम कहते और उस पर सवार हो वो अक्सर बहरी अलंग (बनारस में कंट्री साइड सैर सपाटे को बहरी अलंग कहते है) की सैर करते. रामनगर की रामलीला के वे नियमित दर्शक होते. डोम राजा आम लोगों में हिलते मिलते ज्यादा नहीं थे. भीड़ भाड़ वाले इलाक़े में वे एकान्त तलाश लेते. डोम राजा का घर मान मंदिर और त्रिपुरा भैरवी घाट के बीच में है. इनके घर के ऊपर दो शेर का मूर्ति लगी है. बनारस में अपने दरवाजे पर शेर लगाने का दो ही लोगों को अधिकार था, एक काशी नरेश और दूसरे डोम राजा.

अपने नाम में राजा लगा होने के बावजूद कैलाश चौधरी सहज और विनम्र थे. मित्र थे. जब उनसे पूछिए की बनारस क राजा कौन? तो बड़ी सहजता से उत्तर देते. “हम अउर के. हम शहर में रहिला. जे के तू राजा कहअला ऊ त ओ पार बालू में रहला. हम काशी खण्ड में हई. ऊ त ओ पार रामनगर में रहलन.” कैलाश चौधरी बताते काशी का एक

पौराणिक नाम महाश्मशान भी है. फिर महाश्मशान का राजा तो डोम ही होगा ना. एम्मे काशी नरेश कहॉं से आ गईलन. जब हम डोमराज को यमराज का प्रतिनिधि कहते तो कैलाश चौधरी का जबाब होता, “हम शिव के प्रतिनिधि हैं. हमारे ज़रिए ही शिव मुर्दों का तारक मंत्र देते हैं. जब तू डोम कहला त ओम्मे से ओम का प्रमुख स्वर निकलला. ओम माने ओंकार, और ओंकार माने शिव.” यह डोमराज कैलाश की शास्त्रीय दलील होती.

कैलाश चौधरी पढ़े लिखे नहीं अंगूठा टेक थे. फिर भी श्रवण परम्परा से अर्जित कुछ ज्ञान वो मौक़े बेमौके उड़ेलते रहते. वे बताते कि काशी दुनिया में इकलौता शहर है, जहां तीन राजा का शासन चलता है. आध्यात्मिक राजा, लौकिक राजा और डोम राजा. यहां के आध्यात्मिक राजा शिव हैं. उनकी मौजूदगी से कलि शहर की सीमा में नहीं घुस पाता. शिव यहां मृत व्यक्ति को कान में तारक मंत्र दे उन्हें मुक्त करते हैं. इसलिए उन्हें तारकेश्वर और काशी को मुक्तिदायनी कहते हैं. काशी के लौकिक राजा काशिराज हैं. वो बालू में रहते हैं किसी का कुछ नहीं बिगाड़ सकते. तीसरका हम हई डोमराजा. मृत्यु और उसके बाद सब कुछ हमारे अधीन है. हमारे ही पूर्वजों ने राजा हरिश्चंद्र को ख़रीदा था.

उस समय मेरी उम्र कम थी. पत्रकारिता की शुरूआत थी. लगता था कैलाश हांक रहे हैं. पर अब लगता है ठीक कहते थे कैलाश. बनारस कोई शहर नहीं महाश्मशान है. दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु, चेन्नई ऐसे शहर हैं जिनके भीतर श्मशान बना है. पर बनारस एक महाश्मशान है, उसके भीतर शहर बसा है. दुनिया का यह अकेला, अजूबा श्मशान है जिसके भीतर शहर बसा है. इसलिए मुर्दों के बीच जिन्दा रहना यहॉं आसानी से सीखा जा सकता है.

तभी तो कवि श्रीकान्त वर्मा कहते थे. शव आएंगे/जाएंगे. काशी वैसे ही रहेगी. यहां जिस रास्ते आता है शव. उसी रास्ते जाता है शव.

“तुमने देखी है काशी?

जहाँ, जिस रास्ते

जाता है शव –

उसी रास्ते

आता है शव!

शवों का क्या

शव आएँगे,

शव जाएँगे –

और अगर हो भी तो

क्या फर्क पड़ेगा?

तुमने सिर्फ यही तो किया

शव को रास्ता दिया

और पूछा –

किसका है यह शव?

जिस किसी का था,

और किसका नहीं था,

कोई फर्क पड़ा?”

मृत्यु के प्रति ऐसी बेपरवाही इसी शहर में मिलेगी. बल्कि डोम राजा तो रोज मृत्यु का उत्सव मनाते हैं. शिव भी तो यहां के मशान में होली खेलते हैं. इसलिए डोम राजा भी जीवन को मृत्यु की तरफ से देखते हैं. काशी के किसी एक श्मशान की पौराणिकता नहीं मिलती क्योंकि यह पूरा शहर ‘महाश्मशान’ कहा गया है. राजघाट की खुदाई से पहले तक शैव दर्शन से बनारस के संबंध के प्रमाण पौराणिक ही थे. खुदाई में मिली राजमुद्राओं से बनारस में अनेक शिवलिंगों का पता चला, जिससे इसकी पौराणिकता को पुरातत्व का समर्थन मिला. 18वीं सदी के मध्य मराठों ने बनारस के घाटों का निर्माण शुरु कराया. अंग्रेज वास्तुकार और चित्रकार प्रिंसेप जब 1781 के करीब बनारस आए तब घाट इतने गुंथे हुए नहीं थे. 1832 आते आते बनारस के अधिकतर घाट बनकर तैयार हो चुके थे. दश्वाश्वमेघ घाट के बाद मानमंदिर और उसके बाद मीरघाट आता है. इसे पहले जलासेन घाट कहते थे. फौजदार मीर रुस्तम अली ने यहां एक किला और घाट बनवाया था कहते हैं कि राजा जसवंत सिंह ने बाद में इसी को खोदकर इसके मसाले से रामनगर का किला बनवाया. इसके बाद उमरावगिरि घाट और फिर जलसाई या श्मशान घाट आता है.

बनारस में मुर्दे जलाने की प्रथा कहां और कितनी पुरानी है, इसका ठोस उल्लेख कहीं नहीं है. मणिकर्णिका और हरिश्चंद्र से पहले श्मशान कहां था इसके प्रमाण नहीं मिलते. लेकिन हिंदू नगरों में दक्षिण में श्मशान होने से अनुमान लगाया जाता है, कि जब बनारस उत्तर में बस रहा होगा तब यहां श्मशान रहा होगा. लेकिन बनारस की बस्ती तो दक्षिण में बसती गई अलबत्ता श्मशान उसी जगह बना रहा. पुराने लोग बताते हैं कि प्राचीन श्मशान जलासेन पर था जो संकठा घाट से सटा हुआ है. यहां यमधर्मेश्वर और हश्चिंद्रदेव के पुराने मंदिर भी थे. यहां यम द्व्‌तीया का स्नान आज भी होता है. चौक में भद्दोमल की कोठी के नीचे श्मशान विनायक के मंदिर का उल्लेख मिलता है. मंदिर आज भी है. मणिकर्णिका घाट पुराना है. इसके प्रमाण 7वीं सदी से मिलते है. डॉ. मोतीचन्द्र के मुताबिक महाजन कश्मीरीमल अपनी मां का शव लेकर हरिश्चंद्र घाट गए थे. वहां कुछ विवाद हुआ तो वे लौटकर शव को मणिकर्णिका घाट पर ले आए और पंडों व जमींदार से जमीन खरीद कर अंतिम संस्कार किया. फिर यहीं श्मशान घाट बनावा दिया. उस श्मशान पर डोमों का मेहनताना बांधने का काम पं. नारायण दीक्षित ने किया. नारायण जी ने ऐसी पूरी व्यवस्था बनाई ताकि झगड़े न हो. इस शहर की श्मशान व्यवस्था में कश्मीरीमल और नारायण दीक्षित दिलचस्प पात्र हैं.

कश्मीरीमल अद्भुत चरित्र रहे हैं. अवध के नवाबों की नौकरी छोड़कर उन्होंने महाजनी में खूब कमाया. उनकी कोठी का लाला बच्छराज कोठी से करीबी संबंध था. कश्मीरीमल, वारेन हेस्टिंग्स के कृपापात्र थे और ईस्ट इंडिया कंपनी से उनका लेनदेन चलता था. 18वीं सदी में बनारस में कश्मीरीमल और दूसरे बड़े सेठ गोपालदास साहू की लंबी मुकदमेबाजी चली. मामला हुंडियों के लेन देन का था और झगड़ा लॉर्ड कॉर्नवालिस तक गया. जिसमें बनारस रेजीडेंट मि.ग्रांट ने गोपालदास साहू का पक्ष लिया और उसी के बाद कश्मीरीमल बर्बाद हो गए. 1734 में महाराष्ट्र से आए मराठी ब्राह्मण, नारायण दीक्षित पाटणकर बनारस के पुराने निर्माताओं में हैं. उन्होंने ब्रह्मघाट, दुर्गाघाट और त्रिलोचन घाट बनवाये. हरिश्चंद्रघाट को भरवाया और मणिकर्णिका घाट के श्मशान पर डोम समुदाय के अधिकार तय ‌किए. झगड़ा रोकने के लिए उन्होंने तब प्रति अंतिम संस्कार साढ़े छह आने का टैक्स निर्धारित कराया था.

बनारस में गंगा उत्तरवाहिनी है. यही उसे पवित्रतम बनाती है. लेकिन नगर का विकास दक्षिण की ओर हुआ है. बुद्ध कालीन बनारस मे अकथा और सोएपुर गांव वरुणा पार था. दूसरी शताब्दी के आसपास इसका विकास राजघाट तक आ पहुंचा. वहीं पर पहला श्मशान हमें मिलता है. वह नगर का दक्षिण पूर्वी कोना था. मान्यता है कि शमशान हमेशा अग्नि कोण पर होता है और बनारस शहर का अग्नि कोण उस समय खिड़कियां घाट था. फिर शहर दक्षिण की ओर विकसित हुआ. दूसरे श्मशान का उल्लेख भोंसले घाट पर मिलता है. आज भी वहां आदि मसानेश्वर महादेव का मंदिर है. 11वीं शताब्दी के बाद हरिश्चंद्र घाट और 15वीं शताब्दी के बाद मणिकर्णिका का श्मशान बना. 18वीं शताब्दी के अंत में सामने घाट में एक श्मशान का ज़िक्र मिलता है. कोरोना काल में मौतों की तादाद देख 4 नए श्मशान बने. छ: श्मशान बनने के बाद अब बनारस का पौराणिक नाम महाश्मशान सार्थक लग रहा है.

काशी के महाश्मशान में समाजवाद कभी नहीं रहा. यहां मृत्यु आदमी को सामान्य शव नहीं बनने देती है. जाति बिरादरी के प्रभाव से अलग-अलग दाह स्थल बनते रहे हैं जिसे संबंधित बिरादरी के लोग डोम राजा से अनिश्चितकालीन लीज में खरीदते थे. मणिकर्णिका घाट का चरणपादुका, विष्णुपद पद्म हो या खत्री बिरादरी का चबूतरा. दक्षिण भारतीयों के लिए निर्दिष्ट स्थान हो बंग वासियों के लिए मुक़र्रर जगह. सबके लिए अलग-अलग लोगों के लिए जगह तय है. यानि इन घाटों पर मृत्यु के बाद भी सदियों से रुपया ही काम करता था.

पौराणिक कथा के अनुसार राजा हरिश्चंद्र काशी के डोम के पास ही बिके थे. अब वह श्मशान कहां और किस नदी के तट पर था, इस पर सवाल है क्योंकि उस समय गंगा यहां नहीं बहती थी. भगीरथ के ग्यारह पुश्त पहले हरिश्चंद्र हुए. स्वाभाविक है कि गंगा उस समय पृथ्वी पर अवतरित नहीं हुई थी. वह तो भगीरथ के प्रयास से धरती पर आईं. हो सकता है कि उस समय श्मशान गंगा के अभाव में अस्सी नदी के किनारे रहा हो.

काशी के वर्तमान डोम राजा का इतिहास ढाई सौ साल पहले तक मिलता है. पर डोम बिरादरी वर्ण व्यवस्था के साथ ही बनी है. यह शूद्र की ही एक शाखा है जिसे पहले शवदाहि और वर्तमान में डोम कहते हैं. यह अंतज कहे जाने वाले लोग अपने को यमराज के प्रतिनिधि भी मानते थे. काशी में हरीशचंद्र महाश्मशान या मणिकर्णिका महा श्मशान के स्वघोषित कई राज परिवार हैं वस्तुतः दाह संस्कार के नाम पर जो आर्थिक आमदनी होती है उसके अधिकांश जिस परिवार को जाता है वह राजा हैं और बकिया कर्मचारी हैं या प्रजा होते हैं.

डोमराजा बनने की कई मान्यता है पौराणिक मान्यता के अनुसार एक बार भगवान शिव और माता पार्वती काशी आए. उन्होंने मणिकर्णिका घाट के पास स्नान किया स्नान करते वक्त माता पार्वती के कान का कुंडल गिर गया. इसीलिए इस जगह को मणिकर्णिका कहा गया. उस कुंडल को कालू नाम के एक ब्राह्मण ने चुरा लिया भगवान शिव के पूछने पर भी जब उसने नहीं बताया तब भगवान शिव ने क्रोधित होकर उसे नष्ट होने का श्राप दे दिया. हकीकत जानने के बाद कालू ने बहुत क्षमा याचना की तब भगवान शिव ने श्राप वापस लेते हुए उसे श्मशान में चांडाल कर्म में लगा दिया और कालू पंडित को डोम राजा की उपाधि दी.

दूसरी मान्यता राजा हरिश्चंद्र से जुड़ी हुई है जिन्हें भगवान वरुण के आशीर्वाद से रोहिताश नाम का बेटा हुआ था. उनकी सत्यवादिता की परीक्षा लेने की ऋषि विश्वामित्र ने सोची. इस परीक्षा में पहले उनका सारा राजपाट ले लिया उसके बाद भी जब ऋषि विश्वामित्र ने उनसे और दान मांगा तो उन्होंने अपने आप को वाराणसी के एक डोम के हाथों बेच दिया. डोम ने हरिश्चंद्र को श्मशान में तैनात कर दिया. हरिश्चंद्र ने अपनी पत्नी और बच्चे को एक ब्राह्मण के हाथों बेचा. दोनों दास बन रहने लगे. कालांतर में बेटे रोहिताश को सांप काटता है जिससे उसकी मौत हो जाती है. गरीबी की हालात में उनकी पत्नी बेटे के अंतिम संस्कार के लिए जब घाट पर पहुंचती है तो सत्यवादी हरिश्चंद्र बिना शुल्क लिए अपने बेटे का अंतिम संस्कार करने से इंकार कर देते हैं. जैसा पौराणिक कहानियों में होता है कि फिर प्रभु प्रगट होते हैं और उन्हें आशीर्वाद देते हैं. राजपाट वापस होता है. तबसे यहां डोम जाति को राजा कहने की प्रथा शुरू हुई क्योंकि डोम ने राजा को खरीदा था.

दीपावली में यही महाश्मशान साधना का केंद्र हो जाता है. जब सभी लोग दीपोत्सव मनाने में जुटते है. घरों में पूजा-पाठ चलता है. लोग अपने घरों की सजावट में लगे रहते थे तब महाश्मशान में तंत्र की साधना चलती है. तंत्रिक और साधक शव की साधना करते हैं. जलती चिताओं के बीच साधकों सृष्टि के कल्याण के लिए तांत्रिक सिद्धियों के लिए देवी काली और बाबा भैरव के साथ ही बाबा मशान नाथ की उपासना करते हैं. इस तंत्र साधना के संबंध में अघोरी कहते हैं कि दिवाली की रात को महानिशा काल कहा जाता है. इसलिए तामसिक साधना करने वाले को चमत्कारी सिद्धियां मिलती हैं. इस दिन महाश्मशान पर साधना करने के लिए शराब और मांस के साथ नरमुंड की आवश्यकता होती है. जलती चिताओं के बीच बैठकर बलि दी जाती है. महाश्मशान पर वैसे तो हमेशा ही भगवान शंकर रहते हैं, लेकिन मान्यता है दिवाली की रात महा निशा में महाकाली भी मौजूद रहती हैं.

अघोर साधना का केंद्र भी महाश्मशान है. धार्मिक मान्यता के मुताबिक अघोर पंथ के प्रणेता भगवान शिव हैं. अवधूत भगवान दत्तात्रेय को अघोरशास्त्र का गुरु माना गया है. अघोरपंथी तो अवधूत दत्तात्रेय को भगवान शिव का ही अवतार मानते हैं. अघोर संप्रदाय की मानें तो ब्रह्मा, विष्णु और शिव इन तीनों के अंश और स्थूल रूप में दत्तात्रेय जी ने अवतार लिया. अघोर संप्रदाय के एक संत के रूप में बाबा किनाराम के प्रति आस्था है. अघोर संप्रदाय के व्यक्ति शिव जी के अनुयायी होते हैं. इनके अनुसार शिव स्वयं में संपूर्ण हैं. जड़-चेतन समस्त रूपों में विद्यमान हैं. शरीर और मन को साध कर और जड़-चेतन का अनुभव कर मोक्ष हासिल किया जा सकता है.

अघोर विद्या या फिर तंत्र में लोक कल्याण को तरजीह दी गई है. अघोर विद्या से जुड़े लोगों का कोई परिवार नहीं होता है बल्कि पूरा समाज ही उनके लिए अपना होता है. असली अघोरी कभी आम लोगों के बीच दुनिया के रोजमर्रा के व्यवहार में शामिल नहीं होते हैं. ये अपना ज्यादातर वक्त साधना में ही बिताते हैं. अघोरियों की सबसे बड़ी पहचान होती है कि ये किसी के सामने याचक नहीं होते हैं.

बनारसी मृत्यु का उत्सव मनाते हैं. इसलिए उनकी यमराज के प्रतिनिधि डोम से सहज निकटता रहती है क्योंकि इनकी उत्सवधर्मिता मानती है कि मृत्यु जीवन का अंत नहीं है. वह जीवन का उत्थान है. परम शिखर है. जीवन का चरम है. अगर आपने जीवन ठीक से जिया है. उसका सारा रस निचोड़ लिया है तो मृत्यु परम सुखकारी होगी. रामकृष्ण परमहंस भी मृत्यु को ऐसे ही देखते थे. वे कहते थे- जिस देह को ठाकुर खोल कहते थे, वह ध्यान के कंधे पर सवार हो कर गंगा घाट जा रही है. काशीपुर घाट है यह…. वह दिव्य उत्सव को पुलकित नेत्रों से देख रहा है. घाट से लौटते उद्यान भवन की ओर ठाकुर के लीला सहचर त्रासद रिक्तता से भरे हैं. जैसे सब हिरा (खो) गया हो… सब गंगा ने समेट लिया हो. लाटू अपने लोरेन (नरेंद्र) भाई से कुछ गाने का अनुरोध करते हैं. नरेन के कंठ से फूट पड़ता है. मन चलो निज निकेतने संसार विदेशे विदेशीर वेशे भ्रम केनो अकारने?

मृत्यु की चेतना का काशी से सम्बन्ध अनायास नहीं है. ठाकुर रामकृष्ण परमहंस भी उन विभूतियों में हैं मृत्यु जिनके लिए उत्सव बन गयी है. बुद्ध, कबीर, रमण महर्षि, रामकृष्ण, गोरख सब मृत्यु की चेतना से सम्पन्न माने गए हैं.

बात बुद्ध के अन्तिम समय की है. उनका अन्त निकट था. शिष्य परेशान और दुखी थे. आनंद उनका परम प्रिय शिष्य था. वह चौबीस घंटे बुद्ध के साथ रहकर उनकी सेवा कर रहा था. भद्रक कुटिया के बाहर बैठकर रोने लगा. वह बुद्ध की आसन्न मृत्यु से विचलित था. बुद्ध के कानों में भद्रक के रोने की आवाज पड़ी तो उन्होंने आनंद से पूछा, ‘आनंद! यह कौन है, जो इतने करुण स्वर में रो रहा है?’

आनंद ने उत्तर दिया, ‘भंते! भद्रक रो रहा है. वह आपके दर्शन हेतु आया है.’ बुद्ध ने कहा, ‘उसे तत्काल मेरे पास लेकर आओ.’ भद्रक ने जैसे ही कुटिया में प्रवेश किया, वह बुद्ध के चरणों में सिर रखकर रोने लगा. बुद्ध ने स्नेह से पूछा, ‘क्या बात है, वत्स? क्यों रो रहे हो?’ भद्रक बोला, ‘भंते! जब आप हमारे साथ नहीं होंगे तब हमारा मार्गदर्शन कौन करेगा? कौन हमें अंधकार से प्रकाश तक ले जाएगा?’ उसकी बात सुनकर बुद्ध मुस्करा दिए. फिर बड़े ही स्नेह से उसके सिर पर हाथ फेरकर बोले, ‘भद्रक! ज्ञान का प्रकाश तुम्हारे ही भीतर है, उसे बाहर मत खोजो.

‘अप्प दीपो भव’ (अपने दीपक स्वयं बनो)- यह बुद्ध का अंतिम उपदेश था, मन, वचन, कर्म से एकनिष्ठ होकर साधना करने वालों की आत्मा स्वत: ज्ञानालोकित हो जाती है.’ इसी शहर में कबीर ने भी कभी शोक में कविता नहीं की. वे मौत से नहीं डरते थे. उन्होंने लिखा-

जिस मरने से जग डरै मेरे मन आनंद,

कब मरिहूं कब देखिहूं पूरन परमानंद।।

हम न मरब मरिहै संसारा।

कबीर इतने विकट मृत्यु उत्सवी थे कि उन्हें हमेशा साधो ई मुरदन का गांव का लगता है. राजा प्रजा पीर फकीर वैद्य रोगी, मुनि देवता सब वॉशिंग डेड हैं. कबीर एक ऐसे लोक की कल्पना करते हैं, जहां जुवा मरन व्यापे नहीं, मुआ न सुनिये कोय. चल कबीर तिहि देसड़ें जहां बैद विधाता होय।।

मौत को लेकर ऐसी ही सोच रमण महर्षि की थी. रमण महर्षि से उनके एक अमेरिकी शिष्य ने पूछा कि मृत्यु के समय भक्त को क्या करना चाहिए. रमण महर्षि ने कहा- भक्त कभी मरता ही नहीं. क्योंकि वह पहले ही मर चुका होता है. और अंत मे गोरख जो मरने का न्योता देते घूमते थे. नाथपंथ ने मृत्यु की वर्जना को जीवन के संवाद में बदल दिया.

बसति न सुन्यम सुन्यं न बसती अगम अगोचर ऐसा,

गगन सिषर में बालक बोले ताक नांव धरोगे कैसा।।

लेकिन इस अगम्य तक जाने की राह साहस मांगती है. वे कहते हैं-

मरो हे जोगी मरौ मरौ मरण है मीठा,

तिस मरणी मरौ जिस मरणी गोरख मरि दीठा।।

लौटते हैं डोम राजा पर. एक दफ़ा बीबीसी के मेरे एक मित्र डोम राजा कैलाश चौधरी से मिलने गए. उनको किसी ने सलाह दी थी कि जब जाइएगा तो एक बोतल विलायती शराब लेकर जाइएगा. बीबीसी के वह संवाददाता वैसे ही गए. डोम राजा ने फौरन उस बोतल को खोल कर उसी वक्त कोल्ड ड्रिंक की तरह मुंह में लगा कर पूरी बोतल गटक गए. इसे देख संवाददाता महोदय हक्का-बक्का रह गए. उन्होंने देखा कि डोम राजा के घर खाना चिता से बची लकड़ियों पर ही बन रहा था. चिता की बची जलती लकड़ी पर ही उनके घर खाना बनाने की परम्परा है जो आज भी जारी है.

वाराणसी के डोम राजा का इतिहास तकरीबन ढाई सौ साल पुराना है. इन 250 सालों में दस पीढ़ियों ने डोम राजा की गद्दी को संभाला है. आठवीं पीढ़ी के तीसरे डोम राजा जगदीश चौधरी अभी हाल तक इस गद्दी पर विराजमान थे. वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रस्तावक भी रहे. बीते महीने उनकी मौत हो गई तो उसके बाद अब उनके बेटे ओम हरि नारायण को अगला उत्तराधिकारी बनाया गया है. यह परंपरा ढाई सौ साल पहले कालू डोम से शुरू होती है जो आज तक चली आ रही है.

लेकिन क्या इन राजाओं की जिंदगी सच में राजाओं की तरह होती है? यह सवाल आते ही मुंह से निकल जाता है, नहीं. इन लोगों का समय सिर्फ लाशों के साथ बीतता है. लाश अपने आप में ही एक निगेटिव चीज है. ऐसे में दिनभर इसके बीच रहना कैसा होता है इसका अहसास आप कर सकते हैं. इसलिए ये हमेशा टुन्न रहते हैं. भले ही डोम को राजा कहा जाता हो. लेकिन यह समुदाय सामाजिक रूप से बेहद पिछड़ा हुआ है. अनुसूचित जाति में आने के बावजूद ये आरक्षण का कोई लाभ नहीं उठा पाते और समाज में आज भी छूआछूत के शिकार हैं. हरिश्चंद्र और मणिकर्णिका घाट पर कोई छ: सौ डोम रहते हैं. हलॉंकि उनका कुनबा कोई पांच हज़ार से ज़्यादा लोगों का होगा. अंतिम संस्कार के लिए इन घाटों पर उनकी बारी बंधी होती है. किसी की दस रोज बाद. किसी की बीस तो किसी की महीनों बाद बारी आती है. इनकी कमाई का ज़रिया सिर्फ़ अन्तिम संस्कार है.

डोम राजा के परिवार में पहलवानी की भी परंपरा है. मान मंदिर घाट स्थित घर में ही पुश्तैनी अखाड़ा है जहां नाल फेरने की परंपरा है. नाल जोड़ी उनके अखाड़े में 5 कुंतल से लेकर 30 कुंतल तक के वजन का है. जगदीश चौधरी के समय तक यह परंपरा अपने परवान पर थी. जगदीश चौधरी ने 40 किलो वजनी नाल को लगातार 352 बार फेरने का कीर्तिमान बनाया था.

डोम राजा के जीवन से जुड़ी ये कहानियाँ बताती हैं कि काशी की इस महान परंपरा में कितना वैविध्य है, कितना रस है, कितनी संभावनाएँ हैं. कितना अजीब विरोधाभास है. कि श्मशान की जमीन पर जीवन का शिखर मिलता है. प्रतिभा का पारावार है यहां. बनारसियों के लिए डोम राजा एक सनातन परंपरा के संवाहक के साथ ही साथ जीवन दर्शन का अध्याय भी हैं. मृत्यु की भूमि पर जीवन दर्शन का ये अभिनव संयोग उन्हें ही सुलभ है जो काशी की परंपराओं में रचे बसे हैं. मुझे काशी की इन्हीं परंपराओं ने संवारा है, गढ़ा है, गूथा है, इसलिए डोम राजा के प्रति कृतज्ञता अर्पित करते हुए इस इतवारी कथा का समापन कर रहा हूँ. बनारस में मृत्यु एक ऐसा उत्सव है जो जीवन की निरंतरता को नए अर्थ देता है. यहां श्मशान की चिताओं में भी जीवन के सूत्र मिलते हैं जो एक नई यात्रा के मार्गदर्शक बनते हैं. सो लेखन की ये यात्रा अनवरत रहेगी. इतवारी कथा के अगले अंक (सीजन) के आकार लेने तक इसे विराम देता हूँ.

SOURCE TV9 DIGITAL

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